"हम प्रेम दीवानी हैं" के अंत में विनोद अग्रवाल जी ने यह गाया है. प्रसंग है की उद्धव पूछते है की जब सारी गोपिंया आपके ध्यान में मग्न रहती है, तो फिर आप वृन्दावन छोड़ क्यों आये? आपने उनको विरह ही क्यों दिया? श्री कृष्ण कहते है की मैंने अपने खजाने में से सबसे अनमोल रत्ना दिया है. मुझसे बड़ा मेरा विरह है. मुझ में इतना रस नहीं जितना मेरे विरह में है.
प्रीती धन रावरे को अति ऋण बाढयो सिर
जान नहीं पाऊँ कर कैसे के चुकिजिये
बार बार काहे को लजाओ हो गरीब मैं,
भावे राज त्रिभुवन तो गिरवी रख लीजिये
मूल धन देवे कु कदापि ना समर्थ जान
मोको रख सूद में उऋण लिख लीजिये
ललित विहारिणी सेठानी ब्रज धाम की
श्याम तो ग़ुलाम पद जौन्हो जग दीजिये
प्रीती धन रावरे को अति ऋण बाढयो सिर
जान नहीं पाऊँ कर कैसे के चुकिजिये
बार बार काहे को लजाओ हो गरीब मैं,
भावे राज त्रिभुवन तो गिरवी रख लीजिये
मूल धन देवे कु कदापि ना समर्थ जान
मोको रख सूद में उऋण लिख लीजिये
ललित विहारिणी सेठानी ब्रज धाम की
श्याम तो ग़ुलाम पद जौन्हो जग दीजिये
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